पंडित पी.एन. भट्ट ज्योतिषाचार्य, सागर
अहिंसा के अवतार भगवान स्वामी के जन्म के समय निर्मल नभ मंडल में मकर लग्न उदय में थी। मकर लग्न में मंगल और केतु ग्रह अवस्थित हैं। मंगल, गुरु और शनि क्रमश: लग्न में मकर राशि गत सूर्य चतुर्थ भवन में मेष राशि गत, गुरु सप्तम भवन में कर्क राशि गत एवं शनि दसम भवन में तुला राशि गत होकर उच्च राशिगत है।
रूचक योग
जन्मांक में मंगल उच्च राशि गत होकर रूचक नामक योग बनाता है। ज्योतिष सिद्धान्तानुसार इस योग में जन्म लेने वाले जातक का शरीर अत्यन्त बलिष्ठ और बज्रमयी होता है। ऐसा व्यक्ति अपने सम्यक विचारों तथा सत्कार्यों से विश्व में प्रसिद्धि प्राप्त करता है। ऐसा जातक सम्राटों का सम्राट तथा प्राणी-मात्र उसकी आज्ञा मानने के लिए सदा तत्पर रहते हैं। रूचक महायोग वाला महापुरुष अपने भक्त और श्रद्धालुओं से चारों ओर से घिरा रहता है। ऐसा जातक प्रलोभन या दबाव में आकर अपने निश्चिय को कभी नहीं बदलता।
सूर्य और बुध के मेष राशि में स्थित होने से लग्न में बैठे हुए मंगल की और भी अधिक विशेषता होती है। मंगल पर गुरु की सप्तम दृष्टि ने जातक के शरीर को सर्वोत्कृष्ट कुल में जन्म लेने का अधिकार प्राप्त कराया।
केतु ग्रह कह रहा है कि मुझमें अकस्मात परिवर्तन लाने का विशिष्ट गुण है तथा मुक्ति दिलाने का अधिकार प्राप्त है। अत: इस जातक के शरीर को अचानक ही परिवर्तनशील बनाऊंगा एवं समस्त ऐहिक सुखों से वंचित करके एक अनोखे आदर्श पथ पर चलने के लिए जातक के शरीर को बाध्य करूंगा। पुनश्च: केतु ग्रह कह रहा है कि मैं तुच्छ विषय सुखों की ओर ले जाऊंगा। क्योंकि मुझमें उच्च के सूर्य, मंगल एवं गुरु के गुण विद्यमान हैं। गुरु की सत्कृपा से और ग्रहों के योगा योग से भगवान महावीर को यश कीर्ति उपलब्ध हुई जो आज तक न भुलाई जा सकी है और न युग-युगान्तरों तक भुलाई जा सकेगी।
मकर लग्न चर लग्न है। पृथ्वी तत्व है अतएव भगवान महावीर स्वामी ने अपना निवास स्थान स्थिर रूप से एक जगह नहीं किया। भूमि पर ही शयन किया। चतुर्थ भवन में सूर्य मेष राशि में उच्च राशि गत हैं। सूर्य आत्म कारक हैं, सूर्य प्रखर ज्योति स्वरूप हैं, सूर्य पिता कारक हैं। सूर्य अश्व का स्वामी है। नभ मंडल में सूर्य के समक्ष समस्त ग्रह विलीन हो जाते हैं। चतुर्थ स्थान से माता का, जनता का, स्वयं के सुख का तथा बूमि पर विचार किया जाता है। सूर्य के साथ बुध का योग है। बुध छठवें एवं नवम भवन का स्वामी है एवं सूर्य अष्टम भवन का स्वामी होने से जातक की कुंडली में अष्टेश एवं नवमेश का योग होने से राजभंग योग बनता है। सुख स्थान में मातृ-भूमि, वाहन (रथ, हाथी, घोड़े) एवं अन्य सभी सुखों से वंचित कराने का विचार सूर्य ने किया। आत्मा ने बुध को याज्ञिक कर्म (आत्म साधन) में प्रवृत्त किया। साथ बुध वाणी का कर्ता होने से वाणी एवं बुद्धिबल द्वारा जन साधारण से सम्पर्क स्थापित कर जातक के मन में याज्ञिक कर्म करने की भावनाएं जागृत कीं।
चतुर्थ भवन में पदस्थ उच्च राशिगत सूर्य कह रहा है कि मैं सब सुखों को तप के तेज से अग्नि में जलाकर भस्म कर दूंगा। बुध कह रहा है कि मैं जातक को भाग्य पर भरोसा न करने वाला कर्म शूर बना दूंगा, क्योंकि मुझ पर और सूर्य पर शनि और मंगल की पूर्ण दृष्टि, साथ ही मंगल और केतु केन्द्रस्थ हैं। यदि इनकी दृष्टि न होती तो मैं जातक को सांसारिक सुखों का आनंद ही आनंद दिलाता। इस परिस्थिति में मैं चाहता हूं कि भगवान महावीर स्वामी की आत्मा परम-धाम (मोक्ष) में पहुंचकर आवागमन के बंधन से मुक्त हो जाये।
दयाद्र्र आत्मा
भगवान महावीर स्वामी के समय हिंसा का अधिकाधिक बोलवाला था। यज्ञ में जीवित अश्वादिकों की आहुति दी जाती थीं। तत्कालीन हिंसात्मक असत् धर्म की प्रवृत्ति का अवलोकन, जीवित प्राणियों का हवन कुण्ड की प्रज्ज्वलित अग्नि में भस्म होते देखकर भगवान महावीर स्वामी की दयाद्र्र आत्मा हाहाकार कर उठी और अत्यन्त द्रवीभूत होकर अपने समस्त ऐहिक सुखों का परित्याग कर प्राणी मात्र को आकुलता रहित सच्चा सुख प्राप्त कराने का उन्होंने दृढ़ संकल्प किया। यह सत्कार्य भी उच्च राशि गत सूर्य ने ही किया।
पंचम भवन (क्रीड़ा भवन) में पदस्थ स्वराशिगत शुक्र कह रहा है कि मुढ में आठ ग्रहों का बल है। मकर लग्न होने से मैं केन्द्र एवं त्रिकोण का स्वामी होता हुआ विशेषाधिकार को प्राप्त हूं। अत: मैं इस जातक को यंत्र, मंत्र, तंत्र तथा उच्च कोटि की ऋद्धि-सिद्धियां प्राप्त कराने में समर्थ हूं। मैं जातक (भगवान महावीर स्वामी) को ऐसी अलौकिक विद्या से विभूषित करूंगा, जो जन-जन को सदैव आकर्षित करती रहे और इन गुणों की पूजा एवं अर्चना होती रहे।
हंस योग
भगवान महावीर स्वामी को यंत्र-मंत्र संबंधी उच्च कोटि की विद्याएं, विशिष्ट बुद्धिमत्ता, महाज्ञानी, सर्वज्ञ होने का जन्म सिद्ध अधिकार प्राप्त हुआ। अपने जीवन काल में उन्होंने ऐसे-ऐसे चमत्कार दिखाए, जिससे प्राणी मात्र को उनके समक्ष नतमस्तक होना पड़ा। सप्तम भवन में गुरु उच्च राशि (कर्क) गत है, और राहु भी कर्क राशि में विद्यमान है। गुरु उच्च राशि का केन्द्र में होने से हंस नामक योग बनता है। हंसयोग वाला जातक अत्यन्त सुन्दर, रक्तिम आभायुक्त, मुखाकृति, ऊंची नासिका, प्रफुल्लित कमलोचन, सुन्दर चरण युगल, विशाल वक्ष स्थल वाला होता है। गुरु विद्या, संतान, धन एवं भाग्य का विधायक है एवं प्रशस्त पथ प्रदर्शक होता है। राहु एवं गुरु की पूर्ण दृष्टि तन स्थान में होने से भगवान महावीर का शरीर बज्र के समान मजबूत और अत्यन्त पुष्ट था।
राहु और गुरु कह रहे हैं कि हम सप्तम भवन में स्थित होने से पृथकोत्पादक कारण बनाना हमारा स्वभाव हो गया है। अतएव हम स्त्री सुख से जातक को पृथक रखेंगे और हम पर शनि की दसवीं दृष्टि है अत: राज्य भवन में पदस्थ उच्च राशि गत शनि के माध्यम से जातक के पिता के राज्य वैभव से मुक्त कराकर वन खण्डों की पद यात्रा कराएंगे। किन्तु सूर्य बुध का हम पर केन्द्रीय शासन होने से जातक वन खण्डों और निर्जन स्थानों में वास करते हुए भी केवल ज्ञान कराने की हमारी प्रतिज्ञाएं हैं।
नवम भवन में कन्या राशि में चन्द्रमा पदस्थ है। नवम भाव धर्म और भाग्य का स्थान है। अत: विद्या से परमोत्कृष्ट विद्या की ओर बढऩे का और सम्पूर्ण कलाओं से बाग्य स्थान में स्थित होकर भाग्योन्नति करने का संकेत दे रहा है। चन्द्र, मन का स्वामी है। चतुर्थ स्थान का कर्ता है। ऐसे चन्द्र को राहु, गुरु ने अपनी भावनाएं समर्पित करके मन में त्याग और पृथकता, एकान्तवास, धर्म के मर्म की सच्ची खोज करने के लिए दृढ़ निश्चयी बना दिया। चन्द्र ने कन्या राशि में बैठकर बुध को समस्त गुण प्रदान कर दिये और बुध ने सूर्य से योग बनाया। अत: उस अमृत का स्वाद आत्मा को आया और उस अमृत को पान करने के उपरान्त सभी सांसारिक सुख, चमचमाती समस्त संपदाएं हेय प्रतीत हुईं और संसार के समस्त सुखों का वियोग कराके मुक्ति बधू से नाता जुड़वा दिया।
मुक्ति मार्ग
ध्यान रहे, केतु की नवम दृष्टि चन्द्र पर है। केतु की इच्छा के विपरीत मुक्ति मार्ग मिलना असंभव ही है। दसवें भवन में शनि अपनी उच्च राशि तुला में स्थित है। शनि उच्च राशि गत केन्द्रस्थ होने से शशक योग बनाता है। शशक योग में जन्म लेने वाला जातक सौम्य-मुद्राधारी एवं दिग्दिगंत में भारी प्रशंसा का पात्र होता है। शनि का प्रबाव नभ मंडल में सर्वोपरि है। दसम भवन से पिता तथा निज कर्मों का विचार किया जाता है। अत: शनि कह रहा है कि दसम भवन में उच्च राशि के अंतर्गत होकर उच्च कोटि के कर्म कराने की क्षमता एवं अधिकार सुरक्षित रखता हूं। अतएव उच्च कर्म कराकर ऐसे पद पर पदारूढ़ कराऊंगा, जहां पर पहुंचने का स्वप्न में भी विचार नहीं आया हो।
मुझमें शुक्र को छोड़कर समस्त ग्रहों की भावनाएं विद्यमान हैं और उसमें बी दो ग्रहों की भावनाएं मुख्य हैं। मुझमें मंगल और केतु के गुण होने से परम सुख और मोक्ष में ले जाने हेतु पुरुषार्थ कराने का अधिकार प्राप्त है। सूर्य आत्मा है और मैं शरीर का स्वामी हूं और दूसरे भवन का लक्ष्मीपति हूं। सूर्य आत्मेश है। इस कारण से काया क्लेश पूर्वक भी आत्मा को परमात्मा बनाने का निर्वाण पद पर पहुंचाने का तथा अपने (जातक) कुटुम्ब को त्याग कराने का सम्पूर्ण अधिकार मुझे प्राप्त है। मैं दु:ख का कारण हूं। मेरा नाम सुनकर बड़े-बड़े योद्धाओं एवं शूरमाओं के पराक्रम नष्ट हो जाते हैं। परन्तु जिस जातक पर मेरी कृपा दृष्टि हो जाती है, उसकी कीर्ति भी अजर-अमर हो जाती है।
शनि कह रहा है, मैं अपने समस्त गुण शुक्र को दे रहा हूं, क्योंकि मैं वृद्ध हीं, मेरी गति मंद है। मैं अपने मित्र शुक्र को आज्ञा देता हूं, कि तुम भौतिक सुखों का त्याग करके तप त्याग पूर्वक ऐसी ऋद्धि-सिद्धियां प्राप्त कराना, जिससे तीनों लोकों में भगवान महावीर स्वामी का नाम प्रख्यात रहे तथा हमेशा उनकी पूजा एवं अर्चना, उपासना होती रहे।
आज भगवान महावीर स्वामी का जन्मोत्सव है। आप सभी से अनुरोध है कि भगवान महावीर स्वामी के बतलाए हुए सन्मार्ग पर चलकर उनके अगणित असंख्य अनुयायी भक्तजन और श्रद्धालुजन उनका बारम्बार स्मरण करें।