यह विश्व शक्तिमय है। विश्व के अतिरिक्त भी जो कुछ सत्ता है, वह भी शक्ति है। शक्ति ही जड़ और चेतन दोनों हैं - ब्रह्म, जीव और माया तीनों हैं। शक्ति ही परात्पर है। शक्ति ही भगवती है, शक्ति ही भगवान है। शक्ति ही शक्तिमान है। शक्ति और शक्तिमान में अन्तर नहीं है। जो कुछ है शक्ति है जो कुछ नहीं है वह न होना भी शक्ति ही है। आइये जानते हैं आज की कवर स्टोरी में बसंत नवरात्र में मां आद्यशक्ति की आराधना, शक्ति तत्व का रहस्य।
योगवासिष्ठ महारामायण भारतीय अध्यात्म शास्त्रों में एक उच्च कोटि का ग्रंथ है। विद्वतजनों की ऐसी मान्यता है कि चारों वेदों के अध्ययन मनन के बाद योग वासिष्ठ के अर्थ को समझना ज्यादा सटीक होगा। योग वसिष्ठ में भगवान राम और उनके गुरू वसिष्ठ जी के मध्य संवाद है। भगवान राम, गुरू वसिष्ठ जी से पूछते हंै, हे गुरूदेव ! क्या आप सरीखे गुरू वसिष्ठ और मुझ सरीखे राम इस धरा पर पूर्व में भी जन्मे हैं ? गुरूदेव वसिष्ठ जी ने कहा है राम ! जिस तरह सम्रुद में लहरे उठती हैं और मिट जाती है, उसी प्रकार 14 राम और 14 वासिष्ठ इस धरा पर पूर्व में भी जन्में हैं। इसी ग्रंथ में वासिष्ठ जी कहते हैं, हे राम ! वह अनादि स्पन्द शक्ति प्रकृति, परमेष्वर षिव की इच्छा जगत-माता आदि के नाम से विख्यात हैं। सृष्टि का कारण होने से वह प्रकृति और अनुभूत दृष्य पदार्थों के उत्पादन करने से वह क्रिया कहलाती है। इस महाषक्ति के दूसरे नाम शुष्का, चण्डिका, उत्पला, जया, सिद्धा, जयन्ती, विजया, अपराजिता, दुर्गा, उमा, गायत्री, सावित्री, सरस्वती, गौरी, भवानी और काली आदि भी हैं।
माता का गुरुत्व
- मातृ देवों भव, पितृ देवों भव, आचार्य देवो भव ।
- मातृवान, पितृ मानाचार्यवान् पुरूषो वेद।।
मंत्रों में माता का स्थान सबसे पहले दिया गया है। इसका भी यही कारण है कि माता ही आदि गुरू है और उसी की दया और अनुग्रह से बच्चों का ऐहिक पारलौकिक और पारमार्थिक कल्याण निर्भर रहता है। सनातन वैवाहिक मंत्र- ''सम्राज्ञी भव हमारे वैवाहिक मंत्रों से ही स्पष्ट है कि स्त्री को अपने पति के घर में सर्वोत्तम अधिकार दिया जाता है, क्योंकि विवाह करने वाला पुरूष अपनी पत्नि से कहता है- ''सम्राज्ञी भवÓÓ। अर्थात ,मेरे घर की रानी, महारानी नहीं बल्कि सम्राज्ञी अर्थात सर्वाभौमिक चक्रवर्तिनी बनो। '' इसी से स्त्री को अपने पति के घर में कोई हीन पदवी नहीं मिलती, बल्कि सर्वोत्तम पदवी ही मिलती है।
अंतिम आश्रय: जगन्माता : जो जगन्माता - न केवल साधारण रेषु सर्वेषु, सुप्तेषु जागर्ति अपि तु सुप्तेेपि जगन्नाथे जागर्ति '' अर्थात साधारण सब जीवों के ही नहीं, बल्कि जगत्पिता के सोते रहने पर भी जो अपने बच्चों की रक्षा और कल्याण के लिए दिन-रात सदा-सर्वदा जागती रहती है, जिसका इसी प्रसंग के कारण चण्डीपाठ सप्तषती के एक ध्यान श्लोक में वर्णन है- ''यामस्तौत्सवपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधुं कैटभम। और जिसको शंकरावतार और याति सर्वभौम भगवान जगद्गुरू श्री शंकराचार्यजी ने अत्यंत श्रद्धाभाव से कहा - देशिकरूपेण दर्षिताभ्युदयाम् । विभिन्न श्लोकों के माध्यम से जगन्माता को जगदगुरू बताया है। आज के कलयुगी संकट काल में किसका आश्रय लें। इसी जगन्माता और जगदगुरू के श्री चरणों में शरणागत होकर अपने हृदयोदगार प्रार्थना के रूप में समर्पित कर दें।
शक्ति तत्व
शक्ति तत्व क्या है? जो निर्विषेष शुद्व तत्व सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का आधार है उसी को पुंस्त्वदृष्टि से चित और स्त्रीत्व को चिति कहते हैं। शुद्व चेतन और चिति ये एक ही तत्व के दो नाम हैं। माया में प्रतिबिम्बित उसी तत्व को जब पुरूष रूप से उपासना की जाती है तब उसे ईष्वर, षिव अथवा भगवान आदि नामों से पुकारते हैं और जब स्त्री रूप से उपासना करते हैं तो उसी को ईष्वरी, दुर्गा अथवा भगवती कहते हैं। शक्तिं की उपासना प्राय: सिद्वियों की प्राप्ति के लिए की जाती है। तंत्र शास्त्र का मुख्य उद्देष्य सिद्धि लाभ ही है। आसुरी प्रकृति के पुरूष मद्य-मांस आदि से पूजते हैं, जिससे उन्हें मारण उच्चाटन आदि आसुरी सिद्धियां प्राप्त होती हैं। देवी प्रकृति के पुरूष गन्ध-पुष्प आदि सात्विक पदार्थों से पूजते हैं, जिससे वे नाना प्रकार की दिव्य सिद्धियां प्राप्त करते हैं। यद्यपि शक्ति के उपासक प्राय: सकाम पुरूष ही होते हैं किन्तु निष्काम उपासक भी होते हैं। राम कृष्ण परमहंस निष्काम उपासक थे। ऋग्वेद के दसम मण्डल के 125 वें सूक्त में आदि शक्ति जगदम्बा कहती हैं -
'' मैं ब्रहाण्ड की अधीष्वरी हँू। मैं ही सारे कर्मो का फल भुगताने वाली और ऐष्वर्य देने वाली हूँ। मैं चेतन एवं सर्वज्ञ हूँ। मैं एक होते हुए भी अपनी शक्ति से नाना रूप धारण करती हूँ । मैं मानव जाति की रक्षा के लिए युद्ध कर शत्रुओं का संहार कर पृथ्वी पर शक्ति की स्थापना करती हूँ। मैं ही भू लोक, स्वर्ग लोक का विस्तार करती हूँ । जैसे वायु अपने आप चलती है, वैसे ही मैं भी अपनी इच्छा से समस्त विष्व की स्वयं रचना करती हूँ। मैं सर्वथा स्वतंत्र हूँ । मुझ पर किसी का प्रभुत्व नहीं। अखिल विष्व मेरी विभूति है।
इस प्रकार जगदम्बा को सब कुछ कहा गया है। उस जगज्जननी के अन्दर ही हम जीवन धारण करते हैं, चलते फिरते हैं और अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं।
शक्ति तत्व व कलाएं
शक्ति तत्वों के साथ कलाओं का भी संबंध है। ये कलाएं शक्ति रूप में तत्वों की क्रियाएं हैं। उदाहरणत: सृष्टि ब्रह्मा की कला है, पालन विष्णु की कला है और मृत्यु रूद्र की कला है। शाक्त तंत्रों में चौरानवे कलाओं का उल्लेख मिलता है, जिनमें 19 कलाएं सदाषिव की, छ: ईष्वर की, ग्यारह रूद्र की, दस विष्णु की, दस ही ब्रह्मा की, उतनी ही अग्नि की, बारह सूर्य की, सोलह चन्द्रमा की मानी गई हंै। ''सौभाग्य रत्नाकर ग्रंथÓÓ के अनुसार निवृत्ति, प्रतिष्ठा, विद्या, शान्ति, इन्धिका, दीपिका, रेचिका, मोचिका, परा, सूक्ष्मा, सूक्ष्मामृता, ज्ञानामृता, अमृता, आव्यायिनी, व्यापिनी, व्योमरूपा, मूलविद्या मंत्र कला, महामंत्र कला और ज्योतिष कला ये उन्नीस कलाएं सदाषिव की हैं। पीता, श्वेता, नित्या, अरूणा, असिता और अनन्ता ये छ: कलाएं ईष्वर की हैं। तीक्ष्णा, रौद्री, भया, निद्रा, तद्रा , क्षुदा, क्रोधिनी क्रिया, उद्गारी अभाया और मृत्यु- ये ग्यारह रूद्र की कलाएं हैं। जड़ा, पालिनी, शान्ति, ईष्वरी, रति, कामिका, ह्लादिनी, प्रीति और दीक्षा- ये दस विष्णु की कलाएं हैं। सृष्टि, सिद्धि, स्मृति, मेघा, कान्ति, लक्ष्मी, द्युति, स्थिरा, स्थिति और सिद्धि-ये दस ब्रह्मा की कलाएं हैं। ध्रूमार्चि, उष्मा, ज्वलिनी, जवालिनी, विस्फुलिंगनी, सुश्री, सुरूपा, कपिला, हव्यवहा और कव्यवहा- ये दस कलाएं अग्नि की हैं। तापिनी, तपनी, धूम्रा, मरीचि, ज्वालिनी, रूचि, सुषुम्णा, भोगदा, विष्वा, बोधिनी, धारिणी और क्षमा ये बारह सूर्य की कलाएं हैं। अमृता, मानदा, पूषा, तुष्टि, पुष्टि रति, धृति, शषिनी, चन्द्रिका, कान्ति, ज्योत्सना , श्री, प्रीति, अंगदा, पूर्णा और पूर्णामृता, ये सोलह कलाएं चन्द्रमा की है। इन चौरानवें कलाओं में से पचास मातृका-कलाएं हैं। जो इस प्रकार हैं - निवृत्ति, प्रतिष्ठा, विद्या , शान्ति, इन्धिका, दीपिका, रेचिक, मोचिका, परा, सूक्ष्मा, सूक्ष्मामृता, ज्ञानामृता, आव्यायिनी, व्यापिनी, व्योमरूपा अनन्ता, सृष्टि, ऋद्धि, स्मृति, मेधा, कान्ति, लक्ष्मी, द्युति, स्थिरा, स्थिति, सिद्धि, जडा, पालिनी, शान्ति, ऐष्वर्या, रति, कामिका, वरदा, ह्लादिनी, प्रीति, दीर्घा, तीक्ष्णा, रौद्री, भया, निद्रा-तन्द्रा, क्षुधा, क्रोधिनी, क्रिया उदगारी, मृत्युरूपा, पीता, श्वेता, असिता, और अनंता इन पचास कलाओं का उस सुरा कुम्भ में पूजन होता है, जिसमें तारा द्रवमयी निवास करती है। इनका नाम संवित्कला है। यह बाल योगनी हृदय- तंत्र में की गई है।
शक्ति पूजा और योग रहस्य
हिन्दुओं की समस्त साधना की कुंजी है ''तंत्रÓÓ । सब सम्प्रदायाओं की सब प्रकार की साधना का गूढ़ रहस्य तंत्र-षास्त्र में निहित है। तंत्र केवल शक्ति उपासना का ही नहीं अपितु सभी साधनाओं का एक मात्र आश्रय है। जिस प्रकार मनुष्य की प्रकृति सात्विक, राजसिक और तामसिक भेद में तीन प्रकार की है- उसी प्रकार तंत्र शास्त्र भी सात्विक, राजसिक और तामसिक भेद से तीन प्रकार का है तथा उसकी साधना प्रणाली भी उसी प्रकार गुण भेद से तीन प्रकार की व्याख्यात होती है।।
महाकाल पुरूष और उसकी शक्ति
1. महाकाली
परात्पर नाम से प्रसिद्ध विष्वातीत महाकाल पुरूष की शक्ति का नाम ही महाकाली है। शक्ति शक्तिमान से अभिन्न है। अतएव अद्वैतवाद अक्षुण रहता है। अग्नि की दाहक शक्ति अग्नि से अभिन्न है, प्रकाष शक्ति जैसे सूर्य से अभिन्न है। वह एक ही तत्व शक्ति रूप से परिणत हो रहा है। शक्ति से पहिले इसी महाविद्या का साम्राज्य रहता था। वह पहला स्वरूप है। अतएव महाकाली आगम शास्त्र में प्रथमा, आद्या आदि नामों से व्यवहृत हुई है। सूर्योदय से पहिले- रात्रि के 12 बजे से बीच का समय महाकाली का है। सृष्टि काल उनकी प्रतिष्ठा नहीं, प्रलय काल उनकी प्रतिष्ठा है। अनंताकाष रूप चतुर्भुज रूप में परिणत होकर ही, वह विष्व का संहार करती है।
2.अक्षोम्य पुरूष और उसकी महाषक्ति 'तारा
महाकाली की सत्ता रात्रि 12 बजे से सूर्योदय के पूर्व तक रहती है। इसके पष्चात् ''तारा का साम्राज्य है। हिरण्यगर्भ विद्या के अनुसार निगम शास्त्र ने सम्पूर्ण विष्व की रचना का आधार सूर्य माना है। सौरमण्डल आग्नेय होने से हिरण्यमय कहलाता है। जिस प्रकार विष्वातीते काल पुरूष की शक्ति महाकाली थी वैसे ही विष्वधिष्ठाता इस हिरण्यगर्भ पुरूष की शक्ति 'तारा है। यह पुरूष तंत्र शास्त्र में अक्षोम्य नाम से प्रसिद्ध है। जब तक अन्नाहुति होती रहती है तब तक तारा शान्त रहती है। अन्नाभाव में वही उग्र बन कर संसार का नाष कर डालती है। महाकाली और उग्र तारा दोनों का काम प्रलय करना है।
3.पंचवक्त्र षिव और उसकी महाषक्ति षोडषी
आगम रहस्यानुसार स्वर - वाक की अधिष्ठाती यही हैं। इसी पंचवक्त्र षिव की शक्ति का नाम षोडषी है। भू: भुव: स्व: रूप तीनों ब्रह्मपुर इसी महाषक्ति से उत्पन्न हुए हैं अतएव तंत्र में यह त्रिपुर सुन्दरी के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। सूर्य को लोक चक्षु कहा जाता है। ताप (अग्नि) आहुत सोम (चन्द्रमा) और सूर्य प्रकाष- षिव शक्ति ने इन्हीं तीन रूपों से विष्व को प्रकाषित किया है। सोमाहुति से यह शान्ति बनी रही। प्रात: काल का बाल सूर्य इनकी साक्षात प्रतिकृति है। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, पालक विष्णु, संहारक, रूद्र खण्ड प्रलय के अधिष्ठाता, यम, ये चारों देवता उसके अधीन है।
4.त्रयम्बक षिव और उनकी महाषक्ति ''भुवनेष्वरी
यह चैथी सृष्टि धारा है, चैथी सृष्टि विद्या है। यदि सूर्य में सोमाहुति न होती तो यज्ञ असम्भव था। बिना यज्ञ के भुवन - रचना का अभाव था। बिना भुवन के भुवनेष्वरी उन्मुग्ध थी। संसार में जितनी भी प्रजा है सबको उसी त्रिभुवन व्याप्ता भुवनेष्वरी से अन्न मिल रहा है। भुवनों को उत्पन्न कर उनका संचालन करती हुई वही शक्ति आज भुवनेष्वरी बन गई है।
5.कबन्ध षिव और महाषक्ति छिन्न मस्ता -
पाड्क्तों वै यज्ञ: (ष. 1/1/12) के अनुसार सृष्टि का मूल यज्ञ- पाक यज्ञ, हविर्यज्ञ, महायज्ञ, अतियज्ञ और षिरो यज्ञ- भेद से पांच भागों में विभक्त है। स्मार्त यज्ञ पाक यज्ञ है। अग्नि चयन, राजसूय, अष्वमेघ और वाजपेय ये चार अति यज्ञ हैं। जो महामाया षोडषी तथा भुवनेष्वरी बन संसार का पालन करती हैं वहीं अन्त काल में छिन्नमस्ता बनकर नाष कर डालती हैं।
6.दक्षिणामूर्ति काल भैरव और उसकी महाषक्ति: भैरवी
यमराज को दक्षिण दिषा का लोकपाल बतलाया जाता है। दक्षिण में अग्नि की सत्ता है। उत्तर में सोम का साम्राज्य हे। सोम स्नेह - तत्व है, संकोच धर्मा है। अग्नि तेज तत्व है, रूद्र की शक्ति का नाम व भैरवी किवा त्रिपुर भैरवी हैं। कल्याणेच्छुकों को उनका निरन्तर ध्यान करना चाहिए।
7.पुरूष शून्या अथवा विघवानाम से प्रसिद्व महाषक्ति ''धूमावती
संसार में दुख के मूल कारण- रूद्र, यम, वरूण, निर्ऋूति ये चार देवता है। विविध प्रकार के ज्वर महामारी, उन्माद आदि आग्रेय (सन्ताप) संबंधी रोग रूद्र की कृपा से होते हैं। मूच्र्छा, मृत्यु, अंग-भंग आदि रोग यम की कृपा के फल हैं। गठिया शूल- गृध्र्रसी लकवा आदि के अधिष्ठाता वरूण हैं एवं सब रोगों में भयंकर शोक कलह दरिद्रता आदि की संचालिका निर्ऋति है। ध्यान से ही निदान स्पष्ट है। आषाढ़ शुक्ल एकादषी से वर्षाकाल प्रारंभ हो जाता है तथा कार्तिक शुक्ला एकादषी वर्षा की परम अवधि मानी जाती है। इस चार महीनों को चातुर्मास्य कहते हैं। चातुर्मास्य देवताओं का सुषुप्तिकाल कहलाता है। इतने दिनों तक आसुरी प्राण का साम्राज्य रहता है। इसीलिए दिव्य प्राण की उपासना करने वाले कोई दिव्य कार्य (विवाह-यज्ञोपवीत, यात्रा आदि) नहीं करता। निर्ऋति रूपा धूमावती प्रधान रूप से चतुर्मास्य में रहती हैं।
8.एक वक्त्र महारूद्र और उसकी महाषक्ति ''बगुलामुखी-
प्राणियों के शरीर में एक अर्थवा नाम का प्राण सूत्र निकला करता है। प्राण रूप होने से हम इसे स्थूल दृष्टि से देखने में असमर्थ रहते हैं। यह एक प्रकार की वायरलेस टेलीग्राफी है। सैकड़ों किलोमीटर की दूरी पर रहने वाले आत्मीयजनों के दुख से हमारा चित्त परोक्ष रूप से व्याकुल हो उठता है, उसी परोक्ष सूत्र का नाम अथर्वा है। निगमोक्त बल्गा - शब्द आगम में बगला के रूप में परिणत हो गया। निगम-शास्त्र की बगला ही आगम की बगलामुखी हं। इस कृत्या शक्ति की आराधना करने वाला मनुष्य अपने शत्रु को मनमाना कष्ट पहुंचा सकता है।
9.मतंग षिव और उसकी महाषक्ति ''मातंगी
नवमी महाविद्या शक्ति मातंगी देवी हैं। यह तंत्र में अपना प्रमुख स्थान रखती हंै। इन्हें राज मातंगी भी कहते हंै। इस शक्ति से उन्मत्त हाथी भी वष में हो जाते हैं। यह राजसी भाव से उपासित होकर आराधना करने से राज योग प्रदायनी महाषक्ति बन जाती हैं। इसमें वषीकरण करने की शक्ति है। इनका स्वरूप तंत्र शास्त्र में इस प्रकार लिखा है कि यही राज मातंगी श्यामला, शुक्र श्यामला, राज श्यामला विद्या हैं।
10. सदाषिव पुरूष और उसकी महाषक्ति ''कमला -
धूमावती और कमला में प्रतिस्पर्धा है। वह ज्येष्ठा थी और यह कनिष्ठा। वह अवरोहिणी थी, यह रोहणी है। वह आसुरी थी यह दिव्या है। वह दरिद्रा थी, यह लक्ष्मी है। दसवीं सदाषिव की महाषक्ति ''कमला महाविद्या है। जिसका रोहणी नक्षत्र में जन्म होता है, वह सुखी और समृद्ध होता है। कमला ही महालक्ष्मी हैं। ये धन धान्य, वसु, रत्नप्रदा, रत्नधारा, कनकधारा वसुधारा हैं। यह दरिद्रता का विनाष करती हैं। इस प्रकार उपरोक्त दस महाविद्या शक्तियों का संक्षिप्त दिग्दर्षन नाम मात्र से किया गया हैं।
शक्ति ही जड़ और चेतन
यह विष्व शक्तिमय है। विष्व के अतिरिक्त भी जो कुछ सत्ता है, वह भी शक्ति है। शक्ति ही जड़ और चेतन दोनों हैं - ब्रह्म, जीव और माया तीनों हैं। शक्ति ही परात्पर है। शक्ति ही भगवती है, शक्ति ही भगवान है। शक्ति ही शक्तिमान है। शक्ति और शक्तिमान में अन्तर नहीं है। जो कुछ है शक्ति है जो कुछ नहीं है वह न होना भी शक्ति ही है। भगवती शक्ति क्या नहीं है? कौन कह सकता है ? 'सर्वस्य या शक्ति: सा त्वं किं स्तूयसे मयाÓÓ कौन स्तुति करने में समर्थ है।
श्री शतचण्डी पूजन: सप्तषती महामंत्र
किसी षिवालय अथवा दुर्गा मंदिर के निकट एक सुन्दर मण्डप बनावे, जिसमें दरवाजे और वेदी भी बनी हो। उसके चारों ओर तोरण (बन्दनवारे) लगावें और ध्वाजारोपण भी करें। मण्डप के अंतर्गत पष्चिम भाग या मध्य भाग में होम कुण्ड बनावे। स्नान और नित्य क्रिया से निवृत्त होकर दस उत्तम ब्राम्हणों का वरण करें। ये ब्राम्हण जितेन्द्रिय, सदाचारी कुलीन, सत्यवादी तथा बोधयुक्त हों साथ ही दयालु और प्रतिदिन दुर्गा सप्तषती का पाठ करने वाले हों। उन्हें विधिवत विधि पूर्वक (पाद्य अध्र्य, आचमनीय के साथ अनन्तर) निवेदन करके वस्त्रादि दान, जप के लिए आसन और माला दें तथा हविष्य - भोजन अर्पण करें। तथा विधि विधान पूर्वक जप सम्पुट- पाठ से (प्रत्येक मंत्र के आदि- अंत में किसी बीज अथवा अन्य मंत्र का उच्चारण करने से मंत्र सम्पुटित होता है) एक सहस्त्र जाप प्रत्येक ब्राह्मण को करना चाहिए। अनुष्ठान में यजमान को नव कुमारियों का पूजन करना चाहिए जो कि दो वर्ष से लेकर दस वर्ष की उम्र वाली हो उनके नाम क्रमष: 1 कुमारी, 2. त्रिमूर्ति, 3. कल्याणी 4. रोहिणी, 5. कालिका, 6. शाम्भवी 7. दुर्गा, 8. चण्डिका 9. सुभद्रा। इन्हीं नाम मंत्रों से इनकी पूजा करना चाहिए। अपने सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि के लिए ब्राह्मण कन्या का, यष के लिए, क्षत्रिय कन्या का, धन के लिए वैष्य कन्या का और पुत्र के लिए शूद्र कन्या का पूजन करना चाहिए। गंध, पुष्प, धूप, दीप, भक्ष्य भोज तथा वस्त्राभरणों द्वारा अपनी शक्ति के अनुसार कन्याओं का पूजन करें। इनका आवाहन करने के निमित्त शंकरजी का कहा हुआ मंत्र बतलाया जा रहा हैं। ''मैं मन्त्राक्षरमयी, लक्ष्मीरूपिणी, मातृ रूपधारिणी तथा साक्षात दुर्गा स्वरूपिणी कन्या का आवाहन करता हूं।
महायन्त्रादि- पूजन विधि
वेदी पर सुन्दर सर्वतो भद्र मण्डल बना कर उस पर विधि पूर्वक कलष स्थापन करें और कलष के ऊपर मां भगवती पार्वती जी का आवाहन करें। पीठ की पूर्वादि दिषाओं में गणेष आदि चार की स्थापना करें उनके नाम है भगवान जय महागणेष, क्षेत्रपाल, दो पादुकाएं और तीन बटुक। आग्नेय आदि चारों कोणों में जया, विजया, जयन्ती और अपराजिता इन चार देवियों की आराधना करें एवं पूर्वादि दिषाओं में इन्द्रादि देवताओं की पूजा करनी चाहिए। इसी प्रकार चार दिनों तक पूजा करें। उनमें भी प्रथम दिन सप्तषती का एक पाठ, दूसरे दिन दो, तीसरे दिन तीन और चैथे दिन चार पाठ प्रत्येक ब्राह्मण करें पांचवे दिन हवन होना चाहिए।
होम द्रव्य
विधि पूर्वक स्थापित हुए अग्नि में तीन बार मधु से भिगोये हुए हविष्य, द्राक्षा, केला, मातुलिंग, ईख, नारियल, तिल, जातीफल, आम तथा अन्य मधुर द्रव्यों से दस आवृत्ति सप्तषती के प्रत्येक मंत्र पर हवन करें और एक सहस्त्र नवार्ण मंत्र से भी हवन करें। फिर आवरण देवताओं के लिए उनके नाम मंत्रों द्वारा हवन करके यथोचित रूप से पूर्ण आहूति दें। तत्पष्चात् ब्राह्मणवृन्द देवताओं सहित अग्नि का विसर्जन करके यजमान को कलष के जल से अभिषित करें। यजमान प्रत्येक ब्राह्मण को एक सहस्त्र मुद्राएं दक्षिणा रूप में प्रदान करें । फिर नाना प्रकार के भक्ष्य भोज्यों द्वारा ब्राह्मणों को भोजन करावे और उन्हें दक्षिणा देकर आषीर्वाद लें। ऐसा विधि विधान से पूजन करने पर मां जगदम्बा की कृपा से सुबुद्धि समृद्धि और आपदा, विपदा और झंझाओं से मुक्ति मिल सकेगी। शतचण्डी श्रीदुर्गा सप्तषती का परम अस्त्र है और उसकी शक्ति तथा प्रयोग सन्निहित है इस महामंत्र में। इसकी विधिवत साधना से साधक का जीवन दिव्य और पूर्ण हो जाता है। सप्तषती महायंत्र भोज पत्र पर लिखना हो तो केषरयुक्त चन्दन से बिल्व लेखनी द्वारा अंकित करना चाहिए तथा विधि- विधान से यंत्र की पूजा-प्रतिष्ठा करना चाहिए।
- पंडित पीएन भट्ट
अंतरराष्ट्रीय ज्योतिर्विद,
अंकशास्त्री एवं हस्तरेखा विशेषज्ञ
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